Sunday, April 15, 2012

गल्ली बोउ




तब जौनपुर जिले में माँ का ट्रांसफर हुआ था. हमारे नये स्कूल के पीछे वाले मोहल्ले में घर किराए पर लिया गया  . माँ पापा के व्यवहार के कारण , हमेशा कि तरह पुरे मोहल्ले से अच्छा रेपो  हो  गया  था. पडोसी  थे  घनश्याम चाचा  , बायीं  ओर  उनका  घर था और  दाई  तरफ  उनकी  कपडे  कि दूकान . गली  आखिर  में जहाँ  से पीछे मुड़ती  थी वही   से मुस्लिम  बस्ती   शुरू होती थी  और  गली  के दुसरे  छोर  पर  इस  पार  गल्ली भैया  का  तीन  मंजीले  का  मकान   था , ग्राउंड  फ्लोर  पर  उसके  किराने  कि दूकान  , और  बाकि  तल्लों  पर  तीनो  भाई  क्रमशः  पन्नी , चुन्नी , और  खुद  गल्ली अपनी  पत्नी , माँ  और  एक  बच्चे  के साथ  रहते थे . और  दूसरी  तरफ  बेलनी  कि माँ का  कच्चा   घर था . 

बेलनी  कि माँ हमारे घर काम  करती  थी . फ्री  में अपनी  भुझे वाली  मडई   में हमारा  दाना  भी  भुज  देती  थी  . मैंने उसके पति  को  कभी  नही  देखा  पर  मेरे  सामने  ही  वो दो बार  प्रेग्नेंट  हुई  और  उसने चौकी  और  नक्पोच्छां को  जन्म  दिया .  उसकी  मेरे  उम्र  कि छोटी  सी  बड़ी  बेटी  बेलनी  , घर का सारा काम धाम करती थी. शाम को जब वो कुवें पर नहाती थी तो उसके बदन पर साबुन का सफ़ेद झाग गाढ़ा भूरा हो जाता था.दुबली  पतली बेलनी कुवें से पानी खींचने में बड़ी एक्सपर्ट थी. एक दिन मेरे रिक्वेस्ट करने पर उसने बाल्टी कि डोर मेरे हाथ में थमा दी .ढीलने  में तो मुझे बड़ा मज़ा आया . सरसरा कर बाल्टी निचे पानी तक पहुँच गयी. बेलनी ने झांक कर बताया पानी भर गया. जोश में  मैंने भरी   बाल्टी को ऊपर खिंचा लेकिन मै अचानक  रस्सी पर झूल गयी. बाल्टी इतनी भारी थी कि मेरा सब बैलेंस ही गड़बड़ा गया. मै रस्सी के बल से सरक कर एक झटके में कुवें के मुह पर आ गयी. बेलनी ने  मेरा शर्ट पीछे से पकड़ा और खिंच कर जगत पर  गिरा दिया. लेकिन इन सब में मेरे होश ऐसे फाख्ता हुए कि हाथ से रस्सी छुट गयी और पल भर में जाकर बाल्टी समेत  कुवें में डूब गयी. बेलनी कि माँ ने उसे बहुत पिटा उस दिन.  वो उसे हमेशा मारती थी, उज़द्द तरीके से  गाली देती थी जबकि  बेलनी सुबह से रात तक घर का एक एक काम झाड़ू पोछा, बरतना, खाना , बकरी सब करती थी. दिन भर यहा वहा से परेशां थकी उसकी माँ बेलनी को ऐसे मारती थी कि लोग बचाने पहुँच जाते थे. उस दिन मैंने मम्मी से पूछा था -कहानियों वाली सौतेली माँ असलियत में बेलनी कि माँ जैसी ही होती है क्या ?

 शायद मोहल्लों   में लोग मार- झगडा कच कच  बहुत करते हैं. बेलनी कि माँ बेलनी को मारती थी, गल्ली भैया गल्ली बोउ को मारते मारते सडक तक घसीट लाते थे, ऊपर वाली  चाची अपने मनबढ़ बेटे से झगडती थीं, सीता कि अम्मा के यहा आये दिन उनके दामाद तमाशा करते थे, कभी पडोसी आपस में एक दुसरे से उलझ जाते, और कभी कभी कब्रिस्तान वाले मैदान में क्रिकेट खेलते लड़के एक दुसरे को बैट से धुन देते थे.   रोज़ नया तमाशा. 

मुसलमानों  कि बस्ती  में मुझे  जुलाहों  के   घर  पसंद  थे .   उनके  आंगन में बैठ के शहतूत खाते हुए उनको कालीन बुनते देखना  मुझे अच्छा लगता था. उनके कुनबे में एक सुल्ताना दीदी भी थीं. उनके पीछे मै ज्यादा पड़ती थी. बचे खुचे कुछ उन के गोलों के लिए जिनसे मै अपनी गुडिया के लिए स्कार्फ बुनती थी.

मैंने कभी खुद तो नहीं देखा पर एक दोपहर सीता कि दूकान टाफी खरीदने गयी थी,  वहाँ बेलनी कि माँ  सीता कि अम्मा से गल्ली और सुल्ताना का नाम जोड़ रही थी. सीता कि अम्मा जो सीता के बेटा न पैदा होने का रोना रो रही थीं चुप होकर उसकी बात सुनने लगीं. सुनने के बाद फिर अपना रोना रोने लगीं कि कैसे उनका दामाद सीता के बेटा न होने से उसे छोड़ने कि धमकी देता है और उन विधवा गरीब से जबरजस्ती पैसे लेकर जाता है. बेलनी कि माँ बोली बेटा होना ज़रूरी तो है ही, बेटियों कि लाइन लगा के किसी का भला हुआ है क्या? फिर बिना किसी भाव के बडबडाने लगी कि आखिर इसी कारण न उसके बाप और दादी ने उसे भूज़े कि भट्टी में झोंक दिया था. उसकी माँ न उठाती  तो वो मर ही जाती. उस दिन मुझे समझ में आया कि उसके आधे शरीर पर जले का निशाँ कैसे है. सुन कर मेरा मन थोडा अजीब हो गया.

 तसल्ली  के लिये मै  उठ के मै  बगल में  राधेश्याम  अंकल  कि क्लिनिक  में आई . वे हमेशा कि तरह  किसी  मरीज़  को  पानी  चढाने  में व्यस्त थे . उनकी  क्लिनिक  में मैंने  कोई एसा मरीज़ नही देखा जिसे पानी न चढ़ता था.  वे सबको पानी चढाते और पेशेंट्स के रिश्तेदार बाहर बैठ के एक दुसरे से दुखड़ा रोते कि अरे उनको तो ५ बोतल पानी चढ़ा , कोई कहता अरे इनको तो ७वा  बोतल चढ़  रहा है . थोड़ी देर उनकी कुर्सी पर झुलने के बाद मैंने अंदर  जाकर मरीज़ के पास ही उनसे पूछ लिया, कि क्या वास्तव में कोई छोटे बच्चे को आग में फेंक सकता है और अगर हा तो क्या सचमुच  बचने कि भी सम्भावना होती है ? 

खैर वहाँ से मुह लटकाए सोचते हुए मै घर कि तरफ  मुड़ी तो देखा सब लोग अपने अपने छतो पर चढ़ के कब्रिस्तान वाले मैदान कि तरफ देख रहे थे. गल्ली बोउ रेलवे लाइन कि तरफ  भागने कि कोशिश कर रही थी, और गल्ली भैया उन्हें दौड़ा दौड़ा कर मार रहे थे. मोहल्ले के लिए सब कुछ नोर्मल था . पापा आकर मुझे घर ले गये . उसी दिन मैंने सुना , माँ पापा आपस में डिस्कस कर रहे थे ,  जितनी जल्दी हो सके हम लोग दूसरी जगह किसी शांत इलाके में शिफ्ट हो जायेंगे. 

एक शाम मै स्कूल से लौट रही थी. राधेश्याम अन्कल कि क्लिनिक के सामने पहुँच कर हमेशा कि तरह थोडा स्लो होकर मै जायजा लेने लगी कि आज कितने लोगो को पानी चढ़ रहा है . जायजे से नज़रे फेर कर मै जैसे ही सामने मुड़ी मेरी निगाह गल्ली के घर कि छत पर पड़ी. कोई अस्त व्यस्त पागलों जैसी बिखरे बालो वाली महिला बदहवास दौड़ते हुए छत कि दिवार फांद  निचे कूदने कि कोशिश कर रही थी .मैंने देखा उसके शरीर में आग लगी हुई थी, जलन से परेशां वो छत से कूद कर मरने कि कोशिश में थी. मैंने अपना बैग सड़क पर फेंक दिया. अपना पेट दबा कर मै जितना तेज़ चिल्ला सकती थी , मैंने चिल्लाना शुरू किया. सब लोग गल्ली के छत कि ओर भागे . डाक्टर अंकल कम्बल लेकर दौड़े.
 मै रोना चाह रही थी , पर शाक इतना जबरजस्त कि मैंने वो जल रही है वो जल रही है कि रट लगा रखी थी.

गल्ली बोउ ने आत्महत्या कि कोशिश कि थी  , उन्हें जिला हस्पताल में भर्ती किया गया .शरीर ८०% ज़ल चूका था. आखिरी साँस गिनती बहु  को उसकी सास नन्हे से बच्चे का हवाला देते हुए गिड़ गिड़ा रही थी कि वो अपने पति को बचा ले, वर्ना उसके बच्चे को दो रोटी देने वाला भी कोई नही होगा.

पारिवारिक दबाव से हस्पताल में अपनी मौत से ४ दिन पहले , गल्ली बोउ ने पोलिस को दिए बयान में कहा कि उनके शरीर में आग खाना बनाते वक्त स्टोव फट जाने से लगी. उनके पति या ससुराल के किसी भी व्यक्ति ने उन्हें कभी प्रताड़ित नही किया.

पुरानी आदत कि तरह मै कुवें पर लटक कर अंदर  झांक रही थी. बेलनी पानी भरने आयी थी . आज पहली बार उसने चड्ढी नही  फ्रोक पहनी थी वो भी नई. खुद ही बताया उसने कि उसके बाबु जी आये थे बम्बई से वही लाये है उसकी नयी फ्रोक.

हम मोहल्ले से बिल्कुल  दूर एक अच्छी जगह  सिफ्ट हो गये थे. अब स्कूल स्कूल बस से जाना  पड़ता था. लगभग ५ महीने बाद  बेलनी कि माँ हमारे घर आई थी .  उसे पापा से दवा लेनी थी. वो  प्रेग्नेंट  थी,  पापा उसे बता रहे थे, कि उसमे एनीमिया के स्पष्ट लक्षण है. वो पैसे का रोना रो रही थी , पापा उसे हरी सब्जी खाने कि सलाह दे रहे थे. मम्मी ने आस पड़ोस का हाल पूछा और वो लाइन से सबके बारे में बताने लगी. सीता को बेटा हुआ और उसका पति धूम धाम से उसको विदाई  करके ले गया. उसने ये भी बताया कि गल्ली बोउ के मरने के ३ महीने बाद ही गल्ली सुल्ताना को अपने घर ले आया , तब से वो वही उसकी बीबी कि तरह रहती है, आदि आदि . मुझे बस गल्ली भैया कि खबर का इंतज़ार था,  सुन कर मै अपना होम वर्क करने  चली गयी. 

मुझे कुवें कि याद आयी. उसकी दिवार पर लटक कर झांकने का मन कर रहा था. वहीं बैठ कर बेलनी से कंचा खेलने का मन मन किया . बस  कुवें पर चुपचाप बैठने का मन हो रहा था. 

Wednesday, March 21, 2012

‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी’




                                                -आकांक्षा पाण्डेय

आपा  से जब मैं पहली बार मिली, तो वे मुझे रुड लगीं। एक बार को मुझे लगा शायद वे बहुत सीनियर पदाधिकारी होंगी और उन्हें जूनियर्स से बात करना पसंद नहीं है। लेकिन, अगले कुछ दिनों में मैंने यह देखा कि मुझसे ही उनका कुछ टशन चलता है। वे मेरी प्यार से कही बात का भी बड़ी गंभीर होकर दो टूक जवाब देती थीं। वे मेरे बाकी कुलीग्स की तरह अपना सर खुला नहीं रखती थीं बल्कि हमेशा हिजाब ओढ़कर आती थीं। नमाज़ की बहुत पक्की थीं वे। मुझे एक बार मेरी एक कुलीग ने बताया कि वे रुढ़िवादी मुस्लिम परिवार से आती हैं और बहुत कट्टर हैं। तब मुझे लगा कि शायद मेरे हिन्दू और भारतीय होने के कारण वे मुझे पसंद नहीं करती होंगी। 
एक दिन उनकी बेटी ऑफिस आई। बारह साल की फिज़ा। बहुत प्यारी बच्ची। सलीके से सलवार - कमीज़ पहनी हुई और उस पर लाल दुपट्टा भी सम्भाले हुए। और, पैर में अपनी मम्मी की तरह ही आगे से उँगलियों को ढँकती जूतियाँ पहनी हुई। हम  एक दूसरे से टी- कॉर्नर में टकरा गये। उसने बांग्ला में कुछ कहा, शायद माफी माँगी। और, भी बहुत कुछ वह एक ही साँस में बोले जा रही थी, मुझे हँसी आ गयी। मैंने प्यार से कहा, आमी  बंगला बुझी ना। व्हाट आर यु सेइंग? बस, यहीं से हमारी  बातचीत शुरू हुई। फिज़ा इंग्लिश  में फ़्लुएन्ट है। इसलिए  मेरी बातें अच्छे-से समझने लगी। इतनी फ़्लुएन्टली कि मुझसे ऑफ़िस  में भी कोई बात नहीं कर पाता था। फिर क्या था मैंने उससे जी भर कर बातें कीं। हम दोनों एक दूसरे को अच्छे-से समझ पा रहे थे। भाषा  कोई बैरियर नहीं रह गयी थी। बीच में उसकी किसी बात पर चौंकने का अभिनय करते हुए मैंने हिंदी में कहा, अरे बाबा रे! ये तो बड़ी मुसीबत हो गयी फिर तो। और, फिर उसने तुरंत चौंकाते हुए हिंदी में कहा, अरे आपको तो हिंदी आती है। मैंने कहा, हैरान मैं भी हूँ। तुम तो बिलकुल मेरी तरह स्पष्ट  हिंदी में बात कर रही हो? वह हँसने लगी। बोली, मैं तो डोरेमन की फैन हूँ न। तो भला हिंदी कैसे नहीं जानूँगी।
हम दोनों इतने खश हुए कि फिर हमने खूब सारी इधर-उधर की बातें कीं। अच्छी हिंदी में। 
फिज़ा और मैं बहुत अच्छे दोस्त बन गये, पहली ही मुलाकात में। बड़ी अच्छी ट्यूनिंग हो गयी हमारी। मैं थकती ही नहीं थी, उससे बातें करते और उसकी अजब-गजब बातें सुनते। आसपास के लोग बोले, क्या  बात है, आज आकांक्षा बहुत बातें  कर रही है। दोनों इतनी जल्दी घुल-मिल गये।
मैंने मन में सोचा क्यों? समझ में आया कि एक तो फिज़ा बहुत समझदार और संतुलित बच्ची है और दूसरी बात जो कि मेरे लिये महत्वपूर्ण  थी वो ये कि हमारे बीच भाषा की समस्या नहीं थी। उसकी हिंदी-इंग्लिश दोनों ही इतनी अच्छी थीं कि मुझे अपने दूसरे कुलीग्स की तरह न ही उसे समझाने  की जरुरत पड़ती कि मैं क्या कह रही हूँ और न ही उसे मुझसे बात करने में कहीं भी हकलाना पड़ता। हम अपने मन की बातें तुरंत अच्छी तरह से कम्युनिकेट कर पा रहे थे। खूब मस्ती और मज़े किये हम दोनों ने। 
अपने स्कूल की एक्टिविटीज़ के  बारे में बताते हुए उसने बातों- ही- बातों में बताया कि उसे संगीत से नफरत है। मैं चौंक गयी। पर मैंने जाहिर नहीं होने दिया। मैंने पूछा, क्यों भई, संगीत से आपको नफरत क्यों है तो उसने कहा, मेरे टीचर ने कहा है कि ये अच्छी चीज़ नहीं है। इस्लाम में बुरा संगीत हराम  है। मैंने कहा, अच्छा! तो ये बुरा संगीत क्या होता है? वह चुप हो गयी मैंने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, मुझे तो नहीं मालूम है कि कोई संगीत बुरा भी होता है। तुम बता सको तो मुझे भी जानने को मिलेगा। उसने कुछ सोचा और फिर ताड़ते हुए बोली, नहीं, सब संगीत बुरे नहीं होते, लेकिन बॉलीवुड के गाने अच्छे नहीं होते। वे हराम हैं।
कुछ देर में उसकी माँ आ गयी और उन्होंने कहा, मैं इसे कब से ढूँढ रही हूँ। और ये यहाँ आपसे गप्पें लड़ा  रही है। फिर, वे उसे प्यार से धमकाते हुए तुरंत लेकर  चली गयीं। मुझे अच्छा नहीं लगा, पर उनसे डर भी लगता था और फिर मन में संशय  भी था कि क्या पता मेरा धर्म और राष्ट्रीयता एक फैक्टर  हो इनके लिए। 
मैंने फिजा को जाने दिया।
कुछ ही दिनों बाद हमारे डिविज़न के सब लोगों को आल  स्टॉफ रेसिडेंसियल गेदरिंग के लिए पाँच दिनों के लिए बाहर जाना पड़ा। होटल में दिन के सेशन के बाद रात को सब लोग यहाँ वहाँ बैठ जाते और गाना- बजाना करते। दूसरे दिन जब मैं सोने ही वाली थी कि  एक बहुत मेलोडिअस आवाज ने मुझे जगा दिया। यह एक्सप्लोर करने के लिए मुझे कपड़े बदलकर बाहर आना पड़ा कि आखिर कौन इतना अच्छा  गा रही है। मैंने देखा ये तहसीन आपा  थीं। मैं वहाँ बैठ  गयी। और उनकी गायकी का खूब मजा लिया।
माशा अल्लाह! क्या बेहतरीन आवाज थी। 
उन दिनों ऑफिस के लोगो में एक गहमा-गहमी थी। दरअसल, ट्रांस्पैरेंसी इंटर्नेशनल, बंगलादेश के एक्जीक्युटिव डायरेक्टर एक इंटेलिजेंट अंतर्राष्ट्रीय पर्सनॉलिटी होने  के साथ-साथ ऑफिस के लोगों के चहेते हीरो भी थे। उन्हें संस्थान के हेडक्वार्टर बर्लिन में ज्वॉइन करने का निवेदन मिला था ताकि  उनके अनुभवों का लाभ पूरी दुनिया को मिल  सके। वे जाना भी चाहते थे, लेकिन हमारे ऑफिस के लोगों ने उन्हें अपने पास ही रोकने के लिए युद्ध स्तर पर जोर लगा रखा था। सब जगह रोना-गाना मचा हुआ था। गंभीर बहस चालू थी। कुछ लोग कहते थे कि उन्हें जाना चाहिए। उन्होंने बहुत किया हमारे लिए हमारे देश के लिए। अब उन्हें अपना भविष्य और उन्नत करना चाहिए। साथ ही इससे उन्हें अपने परिवार के साथ वहाँ पर बिताने के लिए ज्यादा वक्त भी मिलेगा जो कि वे अपनी बड़ी होती बेटी के लिए चाहते भी थे। लेकिन, बहुत-से लोगों का कहना था कि वे चले जायेंगे तो पूरा एंटी करप्सन  मूवमेंट प्रभावित हो जायेगा। हमारा काम फुल स्विंग पर है। बहुत नाज़ुक हो जायेंगे हालात अगर वे चले गये तो। लोग कहते थे बात सिर्फ ऑर्गनाइज़ेशन  की नहीं है। बात देश की भी है। और अगर इफ्तिखार  उज्ज़मान चले गये तो बहुत ज्यादा नुकसान  होगा। 
मैं उन्हें बहुत एडमायर करती हूँ लेकिन मेरा मानना  था कि उन्हें जाना चाहिए। और, रही बात बंगलादेश की तो यहाँ उन्होंने ५००० के करीब जो वॉलंटियर तैयार किये हैं, वे लोग काम आगे बढ़ाएँगे। उनके हेड ऑफिस जाने से टीआईबी का सम्मान बढ़ेगा। साथ-ही-साथ उनके कुछ पर्सनल रीजन्स के लिहाज़ से भी यह बेहतर होगा।  
बाथरूम की तरफ जाते हुए मैंने तहसीन आपा को सुना। वे अकेली ही लोगों से बहस कर  रही थीं कि सर को जाने देना चाहिए। पर लोग उनकी बात का बुरा मान रहे थे। मैंने  तुरंत वह पहुँच कर  उनका पक्ष लिया। उनको बड़ी राहत हुई। सबके जाने के बाद कहने लगीं, तुमने मेरी बात सही मानी, मुझे अच्छा लगा, वरना लोग तो मेरे बारे में उल्टा-सीधा बोल रहे हैं। फिर तुरंत अपने पहले वाले भाव में आकर बोलीं, हुँह! मुझे परवाह नहीं होती लोगों की। चाहे कोई कुछ भी कहे, मुझे फर्क नहीं पड़ता। मैंने कहा, हाँ सही बात और फिर मैं भाग ली। 
6 दिन बीत गए। हम लोग वापस ढाका आ गये। 
मैंने पीछा नहीं छोड़ा तहसीन आपा का। अब मैं उन्हें हँसाने की कोशिश में लगी रही। मैं अक्सर जाकर उनसे फिजा का हालचाल पूछती। वे संक्षेप में बता देतीं। मैंने उसे घर लाने का नेवता भी दिया था जिस पर वे बस मुस्कुरा दीं। 
3 दिन बाद फिर से हम लोगों को एक 2 दिन की आवासीय ट्रेनिंग के लिए वहीं जाना पड़ा। यहाँ  के रुल के मुताबिक माँ अपने छोटे  बच्चे के साथ आ सकती है किसी भी आवासीय ट्रेनिंग के लिए। इस बार वे फिजा को लेकर आयीं क्योंकि उन दिनों उसकी छुट्टियाँ थीं और घर पर उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। चूँकि इसी बीच मैंने खरगोश पाल लिया था, सो उन्हें भी मैं अकेला नहीं छोड़ सकती थी। वे भी मेरे साथ गये। वहाँ  जाते ही हम दोनों फिर से एक हो गये। इस बार तो खरगोश भी थे, फिजा का सारा ध्यान बस मेरे आस-पास रहने में ही लगा रहता था। और उसकी मम्मी उतनी ही परेशान। लेकिन पहले वाली गेदरिंग  और इस बात की ट्रेनिंग के बीच में मुझे यह एहसास हुआ की आपा को इतना यकीन हो गया था कि हिन्दू भारतीय होकर भी मैं अच्छी लड़की हूँ। उनके हिसाब से सभ्य भी। इसलिए वे मुझसे थोड़ा और अच्छे से, थोड़ी-बहुत ही सही बात करने लगी थीं। 
ट्रेनिंग के दौरान मैं और फिजा चुपके से हाल  से गायब हो जाते थे। और सारा दिन खरगोशों की रखवाली और देखरेख में व्यस्त रहते। अंदर न मेरा मन लगता न ही उसका। उसकी मम्मी भी समझ गयी की फिजा तो ट्रेनिंग में उनके साथ शांति से बैठने वाली नही हैं, तो उन्होंने मुझे हिदायत दी की मैं हर पल नज़र रखूँ उनकी  बेटी पर। एक पल के लिए भी उसे अकेला न छोडूँ। और तो और उन्होंने उसे एक फोन भी दे दिया और हर आधे घंटे पर उसकी खबर लेतीं। कभी-कभार हम दोनों पारी बाँध लेते कि जब तक मै ट्रेनिंग में हूँ, वह बिल्ली और कौवे से खरगोशों की रखवाली करेगी।
हमने खूब एन्जॉय किया। तहसीन आपा  ने धीरे-धीरे उसे  मेरे भरोसे ही छोड़ दिया। वे मुझसे बातें शेयर करने लगी, हम साथ डिनर भी करने जाने लगे। 
ट्रेनिंग ख़त्म हुई। हम फिर से ढाका की ओर रवाना हुए। लॉजिस्टिक अरेंजमेंट कुछ ऐसा था कि हम लोग एक ही कार में बैठे। रास्ते में खूब बातें हुईं। हमने हिंदी में बातें कीं। पता चला कि वे पुरानी  हिंदी फिल्मों की बहुत शौकीन रही हैं, आर डी बर्मन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल तो उनके फेवरेट रहे हैं। हमने साथ में उनके  पसंदीदा किशोर  कुमार और महेंद्र कुमार के गाने भी गाये। उन्होंने मुझे  बताया कि उन्हें दुःख होता है ये देखकर कि फिजा का संगीत में कोई रुझान नहीं है। उन्होंने कहा कि उनकी भारत देखने की इच्छा है। वे कभी जरुर जाना चाहेंगी। उन्होंने वादा किया कि वे फिजा को लेकर किसी फुर्सत वाले दिन मेरे घर जरुर आयेंगी। फिर उदास हो गयीं, बोलीं, शादी के पहले मैं बहुत गाती थी, लेकिन बाद में सब छोड़ दिया। 
उसके बाद से वे हर दूसरे हफ्ते मेरी फोन पर फिजा से बात करवातीं। अपने प्लान्स के बारे में बतातीं। और, कभी-कभी ऑफिस में हम बंग्लादेश के चिंताजनक पॉलिटिकल मुद्दों पर गंभीर होकर बातें करते। उनका अंदाज हमेशा वही रहा, बेबाक। दो टूक बोलकर तन जाना। एकदम कॉन्फिडेन्ट। ये कहना वे कभी नहीं भूलती थीं, मेरे बारे में कोई कुछ भी कहे,  मुझे परवाह नहीं होती।
अभी कुछ दिनों पहले उन्होंने पूछा, तुम्हारी नाक में तो परसिंग के निशान हैं फिर कुछ पहनती क्यों नहीं। मैंने कहा मुझे पसंद नहीं है। बचपन में मेरी आया ने करा दिया था पर मुझे अच्छा नहीं लगा तो कभी कुछ पहना  नहीं। लेकिन ये निशान तो अब जाता है नहीं, तो रह गया। वे बोलीं, मुझे लगा किसी रुढ़िवादी विश्वास के कारण कराया होगा। मैंने पूछा, अच्छा ! आपके यहाँ  ऐसा कोई विश्वास है क्या? तो बोली, हाँ, मेरी शादी के बाद मेरी सास मेरे पीछे पड़  गयी नाक छिदवाने  के लिए। कहती थी इससे पति की उम्र लम्बी होती है। सास उन्हें बहुत डाँटती थी।  कहती थी कि तुम्हें अपने पति की कोई परवाह नहीं है। जाहिल हो तुम। तो उन्होंने एक दिन पलट कर जवाब दिया कि अगर मेरी नाक छिदने से पति की उम्र बढ़ती है तब तो मुझे पूरी नाक में सैकड़ों छिद्र करवा लेने चाहिए। मेरा पति अमर हो जायेगा। और फिर उन्होंने कभी अपनी नाक नहीं छिदायी।
मैंने कहा इसका मतलब आपके पति बहुत ही सपोर्टिव हैं। तभी तो इतने रुढ़िवादी ससुराल से होने के बाद भी आप स्वतंत्र हैं और सफलतापूर्वक अपना काम कर रही है। कुछ पल बाद वे बोलीं, नहीं, मेरे पति भी बहुत परम्परावादी हैं। मुझे लड़ना पड़ता है, अपने हक के लिए, हर जगह। 
हम अक्सर बातें करते हैं और कभी-कभी वे बहुत  भावुक हो जातीं। अक्सर आते-जाते मेरे पास चली आतीं। बड़े मन से बातें करती हैं। तब तक जब तक कोई उन्हें किसी काम से आवाज न दे दे। हम समझ रही थीं- बहनापे का एक बंधन। बहनापा धर्म और राष्ट्र की सीमाओं से परे हमें एक मजबूत सूत्र में बाँध रहा था। दुनिया में हर जगह औरतें एक ही युद्ध लड़ रही हैं साथ-साथ।
निदा फ़ाज़ली कि एक लाइन याद आ गयी
हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी 
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना। 
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Wednesday, February 15, 2012

Without a Nation (Stateless Biharis in Bangladesh)




 After the colonial periods, many new nations and nationalities developed and presently almost whole population on the earth is being covered by their respective nationalities and national territories. But there are few many communities who are either nation less or subject of territorial conflict between two nations. The case of Biharis of Bangladesh falls in first category. These unfortunates are abandoned in Bangladesh since its independence in 1971. They are living in a situation where the nation they relate with (Pakistan) has refused to accept them and the country of their current habitation (Bangladesh) calls them ‘traitor ‘and has totally stranded.

The tragic story of Biharis begins from 1947, worsened in 1971 and now it’s like a never ending journey to Pakistan.

Background: During the partition of British-India in 1947, around one million Urdu speaking Muslims from Bihar and Uttar Pradesh (Indian provinces), moved to East Pakistan, which later became Bangladesh. . They saw this migration as an escape from the possibility of living in a Hindu majority India. In a way they were defying two nation theory and thought only way to preserve their religious practices is to be in a Muslim country.  

But, when they arrived in East Pakistan, leaving behind their possessions, their familiar environment and professions, they felt alienated in the new society in terms of language, customs, traditions and culture. Although speakers of Pakistan’s official language, Urdu, they found themselves as a minority in the majority Bengali-speaking East Pakistan. Due to these differences Biharis identified themselves with West Pakistan whose dominance over the East Pakistani state assured them of receiving greater privileges from the Central Government. While Bengalis were heavily employed in the agricultural sector, the Biharis, as full citizens of Pakistan, came to be involved in the industrial sector, small business, trade and commerce.

The Bihari community never assimilated with the local people and maintained alliance with the West Pakistani regime against the interest of the Bengali people. They supported the adoption of Urdu as the official language in East Pakistan, where the language of the majority was Bengali, and opposed the Bengalis language movement in 1952. They also supported the issues of United Pakistan in the national and provincial elections in 1970.

During 1971 Bangladeshi war of independence, these Biharis collaborated with the West Pakistani regime and opposed the Bengalis’ freedom struggle. In March 1971 there was extensive violence and a civil war broke where both the communities (Biharis and Bengalis) lost millions of lives. Finally, India intervened militarily on behalf of the Bengali population and the civil war turned in to an international conflict. On 15th of December 1971 Pakistan was defeated and East Pakistan became Bangladesh. The Pakistani army evacuated and these Biharis were left behind.

Along with the Pakistani army; Biharis are also seen as the culprit of the genocide against the Bengalis. In the view of new nation Biharis were termed as traitors and are seen as stranded foreigners (Pakistanis). After independence of Bangladesh the downpour of oppression opened wider, many thousands more Biharis were killed, their homes and businesses were confiscated, they were fired from their jobs, their bank accounts were seized, their kids were expelled from schools and they once more had to seek refuge. Their condition became so miserable that International Red Cross created camps to save them from total annihilation. After the rough treatment they had received, most did not want to live in Bangladesh. So half a million chose to leave for, what was left of their country, Pakistan, but could not do so immediately due to complication in repatriation process. This situation left them abandoned in Bangladesh which continues till now. They were promised of repatriation to Pakistan, but this promise was never fully materialized.

And once again time proved that nationality is another savior bigger than God.

Citizen, Foreigner, Refugee or Minority?

These Biharis comprise of over 2, 38,093 population in Bangladesh suffer from identity crisis. They have been temporarily accommodated in 66 poorly fascinated refugee camps, but they are not regarded as refugees in the conventional sense. Because, firstly, they voluntarily migrated to East Pakistan in 1947 from India; and secondly, in East-Pakistan they enjoyed protection by the state and were full-fledged citizens after 1951. So, UNHCR refused to extend them their services.
The question of the Biharis’ becoming “refugees” had arisen once Bangladesh got separated from Pakistan. All of a sudden these people became stateless as they identified themselves as Pakistanis. But on the one hand, they were not refugees as they were not displaced from their place of residence, and on the other hand, they were stranded outside of their country where their status remained unrecognized.
The Bihari community in Bangladesh also has the minority characteristics outlined in the various definitions. They are ethnically different as they speak different language. Internally they maintain Bihari cultural values in social life. Due to these characteristics, they maintain a different ethnic identity despite practicing the religion of the Bengali majority. Yet, the Bihari community in Bangladesh is not considered a minority group.

Social, Economic and Political Conditions of the Stranded Biharis:

Since, Biharis are believed to have opposed the independence of Bangladesh, and have collaborated with the Pakistani government in 1971 in the massacre of Bengalis; they had to bear enormous social, economic and political consequences immediately after the independence of Bangladesh. Families of seven to ten members share a small eight by ten feet living space.  The living environment of the camps is very deplorable. It is unhealthy, dirty, damp and unhygienic. Medical facility is horrible. Three out of every five newborns die before reaching the age five. As these people are very poor, they cannot afford to take medical facilities from other government and private institutions.  

The schooling facility inside the camps is extremely inadequate. Recently, the Bangladesh government has taken an initiative to improve the rate of child literacy which is called “Reaching Out of School Children” (ROSC), a six-year long project to educate 5 hundred thousand deprived children by 2015. However, this project does not cover the Bihari children in the camps. In many cases, if Bihari families want to send their children to the schools outside the campus, they fail to enroll because of some technical requirements such as nationality, home address or parents’ occupation. Though some of them can manage to get enrolled, they find it very difficult to continue hiding these facts. In some cases, when the school authority comes to know that the student came from the camp, that student will be immediately dismissed. In a few cases, those who are studying outside their community school are basically continuing to hide their Bihari identity.

The economic condition of the Bihari people is extremely bad because of financial insecurity.  Secondly, people in the camps are confined to the camp boundary and do not own any land outside the camps. As the economy of the country is basically agro-based, land ownership is very important. But the Bihari people have no ownership of fixed properties such as land and ponds.

Being frustrated with the camp life, sometimes the Bihari people escape from the camp and try to integrate themselves within the local community. Among them, very few are fortunate enough to survive and ultimately become able to give their children education. In most cases, they fail to survive by themselves and eventually return to the camps due to their inability to adjust to the local social and economic conditions. 

Hatred for Biharis among Bangladesh is quite apparent. A Bangladeshi friend of mine told me ‘that no one should be ever sympathetic to the Biharis. They deceived Bangladesh, sided with Pakistan and killed many of our brothers’. When I told him the above facts and current status of Biharis, he said ‘I know’, but this is what they deserved. They are suffering for what they did. It feels good to see their miserable condition, because what they did to our brothers, women and children during liberation war could never be forgotten. They will never have a future in Bangladesh’.

Since, 1972, Bangladesh has been pressurizing Pakistan for repatriation. But Pakistan never showed any willingness to accept these people. In last decades with the immense pressure from the UNHCR, India, Bangladesh, RAAI, ICRC, Third World Committee of the United Nations General Assembly (UNGA), Islamic Countries Foreign Ministers’ Conference (ICFM) in Sana, Pakistan accepted only about one third of this population for repatriation, and almost 250-300 thousand have been living as stateless people in Bangladesh for more than a quarter of a century.

The story of woes of Biharis in Bangladesh is as cruel as it is long. These Stateless people continued returning to their country of citizenship (Pakistan) by whatever means possible. At this time there are at least 100 thousand living in Pakistan who are not recognized as citizens of Pakistan. Moreover, the Government of Pakistan amended her citizenship act by ordinance to deny nationality of the remaining Stranded Pakistanis (Aka Biharis). Pakistan’s denial of nationality was without a reason, retroactive and without due process of law. This has never been challenged in a Pakistani court of law but is boldly unconstitutional and illegal.

Both the countries have violated numerous national laws and international conventions in the treatment of this group.

Way Ahead:

The plight of the Biharis is that they are neither Refugee; so that at least international law or bodies can extend their humanitarian assistance to them but yet, they are outside their country. Nor they are minority as they do not constitute a part of Bangladeshi nation. Pakistan, the country they belonged to and longing to go back; does not want to take them; and country where they are left in; doesn’t respect them and has stranded.

This chronic and horrible tragedy of Biharis needs to 
be solved as soon as possible. The Government of Pakistan should take back its people and if she is facing lack of funds to settle them, it’s their responsibility to manage it. In today’s globalized worlds where we have so many international bodies, raising funds for these Biharis who suffered a lot and are insignificant in numbers is not an impossible thing. And once they will be repatriated successfully in their own country then they themselves will try to create opportunities for them rather than totally relying on their respective government. Pakistan needs to recognize their citizenship and cover them under their constitution; and the problems will be solved very soon. At least these Biharis won’t be hanging in between the two nations still being stateless.

Bangladesh has moved a step ahead.  On May 2008 Bangladesh's High Court ruled that the children of Urdu-speaking "Bihari" Muslims awaiting repatriation to Pakistan for over 37 years would be granted Bangladeshi citizenship. And they were provided the right to vote in parliamentary elections. However Bangladesh should also recognize the citizenship of those Biharis who want to stay back in Bangladesh as its citizen.

The socioeconomic and political misery of the Biharis, stranded for a long period of time, is certainly enormous. It makes the future of these population uncertain, creates economic pressure, social insecurity and political sensitivities in the host country.

This complicated tragedy has a comparatively uncomplicated solution and it needs immediate attention of international humanitarian bodies. So that prolonged wait of Biharis who have been vacillating between hope and despair because of the hopeless repatriation politics could return back to their homes and their dream of living a normal life in their own country could come true.

Sunday, November 13, 2011

गौरैया






मै सात साल की थी जब एक गौरया का घोसला मुझसे अनजाने में उज़ड गया था .


दरअसल जब से मुझे पता लगा की घोसले में अंडे आ गए है , मै अपनी तरफ से उनकी हिफाज़त में लग गयी. कोई कौवा न मार दे, कही पापा न देख ले नही तो गन्दगी के डर से घोसला फेक देंगे अदि अदि . कुछ दिनों बाद बच्चे अन्डो से बाहर निकल आये. मुझे बड़ा कौतुहल होता , मै झांक कर उनकी सलामती इंस्योर कर आती , बहुत खुश होती थी मै उन दोनों बच्चों  को देख कर. मेरा मन होता था उनके साथ खेलने का, बातें करने का. पर मै बस झांक के चली आती थी , एक तो उनकी माँ वहाँ बैठी होती , दूसरे मुझे मेरे पापा का डर था , जिनकी जानकारी में ये घोसला अभी तक नही था.

एक दिन दोपहर की बात है. गौरया अपने बच्चों को छोड़ के शायद दाना लाने गयी होगी, मुझे चिंता होने लगी की बच्चों  को अगर भूख -प्यास लग गयी तो खायेंगे क्या , पता नही उनकी माँ कहा गयी है और जाने कब तक आयेगी.

मेरे घर में डाबर लाल दन्त मंजन के ढेर सारे  डिब्बे थे, पापा –मम्मी वही इस्तेमाल करते थे न इसलिए . मै इन खाली  डिब्बों के पीछे इस लिए भागती , क्योंकि उनके ढक्कन मेरी गुडिया के किचेन में काम आते थे , मतलब वे उनकी खाना बनानें और खाने के प्लेट के काम काम आते थे. जब गुडिया मर जाती थी , तो उसकी अर्थी के साथ एक ढक्कन में थोड़ा चावल ,किसी में थोड़ा डाल वगैरह रख के गुडिया के साथ दफ़न कर दिया जाता था. क्योंकि मैंने हातिम ताई की कहानियों में सुना था , आदमी मर जाता है तो उसके साथ कपड़े खाना वगैरह भी दफना देते  है ताकि आदमी को मरने के बाद भी कोई दिक्कत ना हो .

जब मैंने देखा की चिड़िया के बच्चे अकेले हो गए है तो मै जल्दी जल्दी गुड़िया के घर से दो डाबर लाल दन्त मंजन के ढक्कन ले आयी. एक में पानी भरा दूसरे में चावल और मै पापा की स्टडी टेबल किसी तरह मैनेज करके घोसले तक आराम से पहुँच गयी . मैंने उनके दरवाजे पे खाना पानी रख दिया. पर बच्चे आ ही नही रहे थे खाने के लिए  . मुझे लगा वो डर रहे है या हो सकता है उन्हें ढक्कन में से खाने न आता हो . यही सोच के मैंने दीवाल पे टंगे एक कैलेंडर से उसकी डंडी निकाल  ली,और चूँकि मुझे चिड़िया को हाथ से खिसकाने में डर लग रहा था , डंडी का इस्तेमाल करके मैंने हौले हौले उनको ढक्कन की तरफ धकेलने की कोशिश की . मै आज भी अपने माँ की कसम खाके कहती हू , मेरा इरादा  बहुत पाक था , मै उनका भला चाहती थी, मै उन्हें खुश देखना चाहती थी, वो मेरे दोस्त  थे मुझे यकीन था; लेकिन हुआ  वो ,जिसका बोझ आज भी मै हटा नही पायी .

कल मेरा तेइसवा जन्मदिन है , सोलह साल हो गए इस घटना को पर सब कुछ हुबहू एक दम ताज़ा बना हुआ है . बहुत देर तक रो के उठी हू अभी ..घर की बहुत याद आ रही थी, बहुत मन हो रहा था कोई अपना अभी मेरे पास होता. पर ऐसा  कभी नही होता . जब भी मुझे बहुत जरुरत होती है अपने लोगो की मै  कभी उन्हें फिसिकली अपने पास नही पाती हू . और जब जब एइसा होता है मुझे उस चिड़िया की याद आती  है , मै और भी रोती. आज तो मै रो रो के कह भी रही थी , की चिड़िया मेरी कोई गलती नही थी. मैंने कुछ जान बुझ के नही किया. मैंने बहुत झेल लिया, बचपन से लेकर अब तक, प्लीज़ मुझे माफ कर दो . मै जानती हू मुझसे गुनाह हो गया लेकिन मै  कर भी क्या सकती थी . मै बच्ची थी मै सम्भाल नही पायी . मुझे माफ कर दो .
चिड़िया को मैंने घोसले के मुहाने पे रखे ढक्कन के पास लाने  की बहुत कोशिश की , चावल न सही मै चाहती थी कम से हम दो बूंद पानी तो वो लोग पी  ले . गर्मी की दुपहरिया थी , मुझे लगा उन्हें जरुर बहुत प्यास लगी होगी . अचानक , एक चिड़िया फडफडाने लगी और ढक्कन के पास आने के बजाय  उसने उड़ने की कोशिश की . मै डर गयी . और मै कुछ समझ पाती इसके पहले ही चिड़िया उड़ गयी . और ............. घर में पंखा चल रहा था ..और  मैंने देखा, कमरे में चिड़िया के पंख यहाँ  वहाँ  बिखरे उड़ रहे थे . मै स्तब्ध रह गयी . मुझे महसूस भी नही हो सका की मुझे क्या महसूस हो रहा है. चिड़िया मर गयी. मुझे याद नही अगले सीन तक मै कहा थी और क्या कर रही थी . जो अगली बात याद है वो ये की आंगन में मैंने चिड़िया के दूसरे बच्चे को सीवर पाइप के पास तडफड़ाते देखा . वो बच्चा भी मर गया.

चिड़िया की माँ घर वापस आई थी , पर उसने वो घोसला छोड़ दिया . वो कुछ दिनों तक आती  रही , उड़ उड़ के पूरा घर घुमा करती थी. और फ़िर हमेशा के लिए घर से चली गयी. कुछ दिनों बाद पापा ने सफाई करते वक्त घोसला देखा और उसे फेंक दिया . मुझे याद नही मैंने किसी से ये घटना शेयर की या नही . लेकिन वक्त बक्त  पे ये बात मेरे मन में गहरी बैठती गयी की मुझे चिड़िया  का श्राप लग गया है, कब छूटेगा नही मालूम . उसके बाद भी मैंने न जाने कितनी घायल चिडियाँ की मदद की , एक को तो गोद में छिपाके  मैंने एक्साम भी दिया था, उसे कौए ने बुरी तरह मारा था . फ़िर एक पिल्ला था वो बेचारा भी पता नही कैसे घायल हो गया था , मेरी सहेलियों ने उसे लाकर मुझे दे दिया था . मैंने उसे बहुत प्यार दिया लेकिन एक दिन वो भी मर गया , उसकी कब्र मैंने होस्टल के पीछे बहुत अच्छे से खोद के बनायीं थी . और भी बहुत थे, एक कबूतर जिसे बिल्ली ने मार दिया था , वार्डेन से छुपाके  उसे मैंने आपने बेड के नीचे पाला , रात रात भर जाग के  उसकी सुरक्षा की, तब तक, जब तक वो  जिंदा रहा , फ़िर कभी एक बिल्ली भी आयी थी और यु ही सब आते रहे जाते रहे . मैंने कभी किसी को तन नही किया बहुत प्यार किया उन सब को , पर चिड़िया का श्राप मुझसे उतरा नही .

फिफ्थ के बाद ही मै होस्टल चली गयी थी . मुझे घर की बहुत याद आती थी . लेकिन स्कूल का रुल था महीने में केवल दो बार पैरेंट्स से मिल सकते है , मेरी दीदी फ़िर भी हर हफ्ते मुझसे मिलने आती . मुझे नहलाती थी और खाना खिलाती थी, मेरे बाल सवारती थी, नाख़ून भी काटती  थी और जब मै घर जाने की बहुत जिद करती थी तो नकली बहाने बना के मुझे छुट्टी भी दिला लेती थी .

मै हर दो हफ्ते में एक बार तो जरुर खूब जोर जोर  से देर तक रोती थी . कभी चादर में छुप के तकिये पर, तो कभी होस्टल के पीछे जेनेरेटर रूम में अकेले बैठ बैठे . मुझे चिड़िया का ख्याल जरुर  आता. और मेरी रुलाई कुछ  एइसे ही हो जाती जैसे आप जानते है की आपसे पाप हो गया लेकिन आपने पाप किया नही था . मै कैसे समझाती . चिड़िया तो मुझे कभी मिली नही न, मिल भी जाती तो क्या समझ पाती मुझे . मेरी वजह से उसका घर बर्बाद हो गया ऊसके दो छोटे छोटे बच्चे इतनी बुरी तरह मर गए, कैसे माफ करती वो मुझे. मुझे जरुर उसने श्राप दिया होगा की मै भी हमेशा अपने लोगों से दूर ही रहूंगी .


मेरी बहुत सी पक्की सहेलियां हुयी लेकिन पहले माँ की नौकरी  के साथ साथ घूमने के कारण , और बाद में मेरी पढाई और बदलते शहरों के कारन सब छूट जाती. वो बहुत अच्छी है और मुझे प्यार करती हैं  . मुझे याद आती  है उन सब की.

और जब बहुत याद  आती है , इतनी की आँसू  आ जाते है तब मुझे चिड़िया की भी याद आती है. आज मुझे बहुत याद आई . मै बहुत रोई हू . मेरा तकिया भींग गया है और चेहरा सुज़ गया. सोचा क्या  पता इस बात को  लिख देने से या किसी को बता देने से ये अपराधबोध मेरे मन से निकल जाये. 

Wednesday, September 21, 2011

मुख्यमंत्री मायावती और दलित


स्कूल के दिनों में मायावती से मेरा खासा लगाव शुरू हुआ था. बहुत अचंभित करती थी ये महिला मेरे बच्चे से दिमाग को. कारण भी था .


मैंने अपने  नानी और बाबा के गावों में देखा था , छत से दूर  कच्चे  घरों कि कुछ झोपड्पत्तियां, जहाँ पक्की या ईंटे वाली चौड़ी  रोडे नही केवल  मेड जाती थी. और वही से बर्तन माज़ने वाली कहारिन अम्मा आती थी, दालान और दुवार बुहारने वाले बूढ़े काका भी (जिनके बीड़ी प्रेम ने एक बार मुझे भी प्रेरित किया था छुप के  कम से कम एक बार तो जरुर उनकी बीड़ी पी  जाय, लेकिन दुर्भाग्य वश धुआं  छोटे से फेफड़े में एइसा भरा की होश आने पे मेरे चारो तरफ लोग  ही लोग थे और मामा जी भी जिनसे आज भी मुझे  उतना ही  डर लगता है, वे मामी को  मुझे घी पिलाने की सलाह दे रहे थे  )  उसी दिशा से आते थे. शादी बियाह का बाजा  थमने के बाद घूर पर से पत्तलों कि बची जूठन थैलों में समेटते परिवार (जिनको नानी डोम बताती थी ) भी वापस उधर ही चले जाते थे. 


 ड्यूटी से वापस आने के बाद जैसे कि माँ का दिन पूरा ही नही होता था बिना  दिन भर कि बातें पापा से साँझा किये . कभी कभी वो   फुल एक्टिंग के साथ हम लोगो से बताती थीं कि कैसे एक दलित एरिया में टूर के दौरान एक महिला हाथ चमका चमका के ऊपर वाले से  बड़े ताव  से कह रही थी कि, "हे भगवान् बस एक बार हमार मायावती बिटिया चुनाव जित जाय, कुर्सिया पे बैठ जाये, एकरे बाद त जवन बुध्ही ठंठाई बाम्हन ठकुरन क कि उन्हहने के घमंड का पिल्लुद्दा न निकल जाय त हमर नाव नाही". कभी कभी तो मैंने खुद देखे  है एइसे सीन . भाई नेता हों तो एइसा जिसके नाम से भी उसकी जनता का सर ऊँचा हों जाय , वो  जनता  भी अगर एईसी हों कि सदियों से बेइज्जती और लात  जूता ही इन्हें दुनिया ने  दिया  हों ,तो भाई वाह!! क्या नेता पैदा हुआ है और उस पर भी क्या सिस्टम जिसने एइसे हालत में एइसा नेता पलने दिया , पोसा और गद्दी पर ले जाके खड़ा कर दिया. 


और कोई माने न माने लेकिन हकीक़त  है कि मायावती के राज़ में उत्तर प्रदेश का समाज बहुत बदला है , चमार -सियार जैसे शब्दों की  फ्रीक्वेंसी  बहुत कुछ खो गयी है और कम से कम इसका उदहारण  उचित नही माना जाता . इस पीढ़ी को बाबा साहब अम्बेडकर का इतिहास और भारत निर्माण  में उनके कीमती योगदान का पता चलने दिया गया है. पोलिस या सवर्ण जातियां  केवल छोटी सी गलती पर या केवल  शक कि बिनाह पर ही लाठी नही बरसा सकते अब किसी पर भी , सिर्फ इसलिए कि वो हरिज़न है. दलितों पर हाथ डालते कम से कम एक बार वो हुक्मरान अन्दर  से हिलते जरुर होंगे . और कम से कम  जनता के एक तबके के साथ ऐसे किये जाने वाले ऐसे क्रूर कुकर्मो को   पिछले कुछ सालों में मिडिया कभी कभार ही सही , थोडा बहुत ही सही पर जगह  देने लगी है . 


और उससे भी बड़ी बात बसपा के बढ़ाते कदम के साथ साथ एक पूरी पिछड़ी हुई जाती के सपने भी  उठे है , उन्हें लगने लगा है कि वो सिर्फ झाड़ू, जूता चप्पल ,कूड़ा कचरा के लिए ही नही जन्मे है , वो भी भारत भाग्य विधाता हों सकते है . अम्बेडकर जी कि जिस अदभुद क्रांति को भुलवाने कि पूरी कोशिश कि गयी बसपा ने उस पर जमी धुल को  साफ करने कि कोशिश कि है. 


लोग शोर करते है कि मायावती अपनी और  अम्बेडकर  साहब कि मूर्तियों से पूरा यु पी पाट रही हैं  , गरीबों का धन अनर्गल खर्च कर रही है . मै मानती हू कि जिस देश में जनता को पेट भर खाने को भी नही मिल रहा है , वहा किसी भी नये प्रोजेक्ट के लिए अपोर्चुनिटी कास्ट का ठीक तरह से मूल्यांकन और बुध्हिमता पूर्ण इस्तेमाल जरुरी है . पर रुकिए ! मूर्ति स्थापना का आपना महत्व रहा है दुनिया में . लन्दन हों या भारत हर जगह ये पुरानी संस्कृति है. भारत के ही उदाहरन लें तो आज़ादी के बाद से कितनी मुर्तिया बनी बिगड़ी किसी ने कभी पैसे का हिसाब जोड़ा ? किसी को बुरा लगा कि देश मूर्तियों से पट रहा है? नहीं न !! तो मायावती या अम्बेडकर कि मूर्ति में एइसा क्या है ? ये इतना शोर क्यों है ?


क्या ये हमारे अन्दर कि इर्ष्या , जलन भुनन और उठा पटक नही है कि वर्षो से हमारे पुरखों के सामने जिनकी आँख उठाने कि भी हिम्मत नही थी , आज उनकी बिच शहर में मूर्ति कैसे खड़ी हों रही है ?  मै समझती हूँ , मूर्ति स्थापना का प्रतिकात्मक अर्थ है किसी विचारक, विचारधारा , आदर्श, महापुरुष ,उम्मीद या क्रांति को इज्ज़त पेश करना और अगली पीढ़ी का  भी इनसे इत्तिला करवाना. इस तरह अम्बेडकर के सामाजिक योगदान पे तो कोई शक ही नही , (हालाँकि फिर भी  उसे दबाने कि  भरपूर और लगभग सफल कोशिश  जी जान से कि गयी ) मायावती का महत्व भी मान ही लेना चाहिए सवर्ण  समाज को . माना कि उनसे इनके इगो को चोट पहुंचती है पर भी इतना बौखलाने कि जरुरत नही होनी चाहिए कम से कम तब तो बिलकुल भी नही जब आप अपने समाज के प्रगतिवादी होने का डंका पीट रहे हों.  


खैर!! ये तो रही एक बात की मायावती के पद ने पिछड़े समाज का आत्मविश्वाश बढ़ाया है और इस तबके में  आत्मविश्वाश का जागना और बढना आपने आप में ऐतिहासिक महत्त्व रखता है , लेकिन इसके आलावा मुझे मलाल है इस बात का की महिला और भी बहुत कुछ  कर  सकती थी या कर  सकती है  पर कर नही रही. वक्त बितता जा रहा है पता नही भविष्य में क्या है बसपा के लिए . पर मायावती ने अपनी बहुमत सरकार में भी एक भी एइसा बिल नहीं  पारित करवाया  जो वास्तव में पालिसी स्तर पर  कुछ भी बदलाव लाता और दलितों का भविष्य मज़बूत करता .
इनको जो मौका मिला उसका भरपूर उपयोग करने के बजाय देवी जी प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना बुनने लगीं . बुने! जरुर बुने ! ये सफल हुआ तो इससे अच्छा क्या होगा . लेकिन इस वर्ग की आने वाली पीढ़िया बहुत तेज़ और समझदार भी होंगी और शायद उन्हें न समझ में आये की सवर्णों के सताए उनके बाप दादा को मायावती के गद्दी नाशिन होने से क्या भावनात्मक सुख मिला ,पर वो ये खोजेंगी और जानना  चाहेंगी की मायावती ने लोकतंत्र में एइसा क्या ठोस किया जो उनके भी काम  आये . कौन  से ,एक्ट और कानून स्थापित किये ?अपने  आलावा कितने और दलित नेता निखारे, इत्यादि. 


ये सब मै इसलिए  कह  रही हु क्योंकि जैसे जैसे मै बड़ी हुई, मेरे मन में ये सवाल आते रहे है . जिस सिस्टम ने इन्हें नेता बनाया  उसकी भी असलियत मै समझती हु अब . नानी और बाबा के गावों से इतर गाव भी देखे है मैंने अब . तमाम फूलते और फुस्स होते खयाली गुब्बारे भी देखे है मैंने . इस सिस्टम और इसके नेताओं से जलती और फिर बुझती उम्मीदे भी देखी है मैंने . लेकिन थोडा लगाव था मायावती से. आशा है वो बिलकुल निराश नही करेंगी .


आपकी शुभाकांक्षी 
-आकांक्षा